Tuesday, September 4, 2012

एक दलित कविता

शाख से टूटे तो फिर मर जाएँगे पत्ते
फूलों की नुमाईश मे बिखर जाएंगे पत्ते 

मालिक ने भी फूलों को ही तो सर पे चढ़ाया
है मतलबी माली तो किधर जाएँगे पत्ते |

 फूलों की बेरुखी के हश्र का सवाल था
 मेरा था ये जवाब  कि झर  जाएँगे पत्ते 

बारिश ये रहमतों  की तो बस एक फ़रेब है 
तुम देखना ओसों से सँवर जाएँगे पत्ते 

तुमको है ये गुमाँ कि शहर दिल्ली दूर है
 मुझको है  ये यकीन कि शहर जाएँगे पत्ते

Tuesday, December 27, 2011

अधूरा सा कुछ



मफलर का एक शिरा फंस गया हो जैसे
ठीक वैसे
यादें उघडतीं जाती है

यादें तब कि
जब भूला जाया करता था Y2K समस्या
और याद रहते थे मीर ओ बशीर

यादें तबकि
जब तुम्हारी जुल्फें लम्बी थीं
और परेशानियां छोटी

यादें तबकि
जब कीन्स और pareto बोझिल थे
और इन्हें बांचने वाले बेदिल

यादें तबकि
जब दोस्तों ने पहली दफा दिखाए थे सिगरेट के छल्ले
और तुमने पहली दफा दिखाई थी आँखें

यादें तबकि
जब प्याज पर गिरती थी सरकार
और प्यार पर उठते थे तलवार

यादें तबकि
जब जमीन पैरों का गुलाम था
और आसमान सपनों का पड़ोसी

यादें तबकि
जब तुमने बदली थी निगाहें
और हमने बदला था शहर

याद की तासीर अब भी कायम है
तेरे मफलर सा ही मुलायम है
फर्क इतना है कि किरदार बदल लिए हमने

अब तुम मेरी कहानियों मे परी हो
और मै तुम्हारे अफसानों मे राजकुमार

Monday, March 21, 2011

RAINBOW........ THE COLORS OF LIFE.


तुमने पूछा है, मुझे रंग से परहेज है क्यों
तुमपे फबते है रंग, फिर भी ये गुरेज है क्यों

मै बताऊ भी तो क्या तुम ये समझ पाओगे
तुमपे गुजरा ही नहीं कैसे समझ पाओगे

तुमने देखा ही नहीं ख्वाब का पीला पड़ना
तुमको मालूम है क्या सब्र का ढीला पड़ना

तुमने जाना ही नहीं जख्म का हरा होना
कैसे समझोगे फिर दिल का मकबरा होना

तुमने देखा ही नहीं दर्द के नीलेपन को
तुमने देखा ही नहीं घर के कबीलेपन को

तुमपे गुज़री ही नहीं हिज्र की काली रातें
तुमने देखी है कोई आस से खाली रातें

डोरे आँखों के ये लाल से क्यूँ रहते है
ख्वाब आँखों मे पड़े बाल से क्यूँ रहते हैं

उसकी यादों की तरह आके छले जाते है
इसी वजह से ऐ दोस्त, मुझे रंग नहीं भाते है

Wednesday, February 9, 2011

MOHEN- JO -DARO


अभी तो चमका था तुम्हारी अंगुश्तरी का नीलम

अभी तो लेटी थी तुम मेरे शानों पर


मै तो लिख ही रहा हूं तुम्हारा नाम शीशम पर

अभी तो भूले थे तुम अपने कान के बुदें

अभी तो ताज को जेरे बहस बताया था


अभी तो पराठे कि जिद की थी मैंने


और दिखाई थी तुमने आँखें


अभी तो रो रही थी तुम गिलहरी के मरने पर


और हंस रहा था मै ELLE-18 की ज़िद पर


अभी तो अपनी सहेली से बचा लाई थी मुझे


क्युंकि उसे आता था काला जादू


अभी तो मेरे घुटनो पे सर रख कहा था


"जब तक नही आओगे मै रोउंगी नही"


अब जो आया हूं तो


तारीख मुझपे हंसती है


ग्यारह सालों के ताने कसती है


क्या सच मे ग्यारह साल बीत गये! सच बताना।


हां एक सच और बताना


कोई कह रहा था


" वो रुखसती पर भी नही रोई थी"।



अंगुशतरी- अंगुठी


शानों- shoulder


जेरे बहस- बह्स का मुद्दा


रुखसती- विदाई


Monday, February 7, 2011

उम्मीदें, उम्मीद से हैं




उधडे यादों को फिर एक बार रफू करना है


जो रह गया था वही, फिर से शुरु करना है।



ख्वाब बुनने की आदत है सो जाती ही नहीं


सोचते रहते हैं यूं करना हैं, यूं करना है



बूढे बरगद से तेरा नाम मिटा आये है


बेवजह ही तुझे बदनाम भी क्यूं करना है।



ज़ेहन को फिक्र 'तू मेरी बुरी आदत है '


मैने ठाना कि इस आदत ओ जूनूं करना है



दिल को लगता है तू आएगा पशेमां एक दिन


दिल का क्या है इसे हर हाल सुकूं करना है ।



ज़ेहन- दिमाग


पशेमां- पछतावा

(चित्र गूगल से साभार)




Tuesday, December 28, 2010

मचान


तुम तीन थे ना ?

एक बच गया।

अभागा!

तुम, जो कि खुद मे ही मुकम्मल थे

फकत तुम्हारी सोच तुम्हे हमसे ज़ुदा करती थी।

कुछ कुछ "स्पीड थ्रिल्स" जैसे।


कार के आगे शीशे पर

कत्थई जैसा कुछ सूख गया है

खून ही होगा।

पान तो खाते नही थे तुम ( बिलो स्टैंडर्डॅ ना)


दूसरी वो

जिसके बालों के गुच्छे

सामने कार के शीशें मे फंसे हैं।

वो जिसे पब्लिक ट्रांस्पोर्ट के फिलौसोफी

"पैथेटिक" लगती थी।

वो जो तुम्हारे साथ ही

"जीना" और " जाना" चाहती थी

और तुमने उसकी दोनों इच्छायें पूरी की।

बिल्कुल किसी युनानी देवता की तरह।


तीसरा वो,

जिसे अपनी बुढाती बहन ब्याहनी थी

मरते बाप की श्राद्ध की चिंता करनी थी

हांफती डांफती मां का "एस्थालिन" भी लेना था।


कहता था मैं "सेल्फ मेड" हूं ।

मुझे अप्रोच, बैसाखियां लगती हैं।


सुना है ( मै देखने की हिम्मत नही कर सका)

वो तीसरा बैसाखियां भी नही उठा पा रहा।


मुझे न तुम्हारे पीने के तरीके से गुरेज़ है

न तुम्हारे जीने के सलीके से परहेज ।


नसीहत देनी थी

मगर जाने दो ।


( मित्रों से क्षमा । जिनकी इतनी अच्छी पार्टी के बाद मैने सोगवार लिखा)

( जिन्होने भी यह मान लिया है कि शराब उन्हे नही छोडती, विजय से मिलें । पता मैं दे दुंगा)


Tuesday, October 19, 2010

न जुनूँ रहा ...न परी रही




देखना तुम्हारी हथेलियों कों,

और बताना झूठे भविष्य ।


सताना तुम्हे और कहना,


कि मरोगी तुम छोटी उम्र मे ही ।


कहना तुम्हारा कि

"जानती हूँ"।


बस ये बता दो कैसे?


चूमना उंगलियाँ और कहना मेरा

कि हठात योग है


किसी फसाद में


विश्वासघात से या फिर


बिना किसी कारण ही।


हंसना तुम्हारा और कहना कि

"फसाद मे मरना


अवसाद मे मरने से


कहीं बेहतर है।"


" और श्वास का टूटना


विश्वास के टूटने से कहीँ अच्छा"।


फिर रुआंसा होना तुम्हारा


और कहना


"मैं तुम्हारे साथ बूढी होना चाहती थी"।







सबकुछ खत्म नहीं हुआ प्रिय...........


बस तुम बिन बूढा होना,

विश्वासघात सा लगता है।




(अवनीश को धन्यवाद...जो मुझे याद दिलाते हैँ कि, लिखना, जिवीत रहने की अनुभुति है)